ऑय 1 न्यूज़ बेउरो रिपोर्ट
केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो यानी सीबीआई पिछले कुछ दिनों से लगातार सुर्खियां में बनी हुई है। इसकी वजह तो अब सबके सामने आ ही चुकी है। यह दो शीर्ष अधिकारियों के आपसी झगड़े या यूं कहें अहं का शिकार बनी है। एक समय था जब सीबीआई का खौफ हुआ करता था, लेकिन अब सीबीआई के नाम से मजाक बनाए जा रहे हैं। देश की सर्वोच्च अदालत भी इसे तोता कह चुकी है। पिछले लगभग एक दशक में सीबीआई की छवि और साख दोनों को ही कई वजहों से धक्का लग चुका है। यहां तक कि इस जांच एजेंसी के निदेशक रह चुके कई पूर्व अधिकारियों ने भी यह स्वीकार किया है कि सीबीआई की साख अब दांव पर लग चुकी है। सीबीआई के पूर्व निदेशक त्रिनाथ मिश्रा और एपी सिंह भी पूरे घटनाक्रम पर दुख जता चुके हैं। त्रिनाथ ने पूरे प्रकरण पर दुख जताया तो सिंह ने कहा कि कनिष्ठ अधिकारी यह तय नहीं कर सकता है कि कौन जांच करेगा। उसे केवल आदेश मानना चाहिए। पूर्व निदेशक विजय शंकर ने कहा कि सीबीआई का मुखिया सरकार की इच्छा और खुशी से बनाया जाता है। कौन बनेगा और कब तक रहेगा यह सरकार द्वारा तय किया जाता है। लेकिन मौजूदा प्रकरण में जो बातें सामने निकलकर आई हैं, उन्हें जानने के बाद आम आदमी का विश्वास तो सीबीआई पर से डगमगा सकता है। सोचिए अगर सीबीआई के अधिकारी एक-दूसरे को फंसाने के लिए जुर्म की किसी भी हद तक जा सकते हैं तो किसी सामान्य नागरिक के साथ क्या हो सकता है। जिस तरह से सीबीआई के अंदर कलह शुरू हुई उससे यह तो स्पष्ट होता है कि दो अधिकारियों के अहं का टकराव इतना बढ़ा कि यह सरकार के लिए सबसे बड़ी प्रशासनिक चुनौती बन गया। इसकी शुरुआत हुई थी अपने पसंदीदा अफसरों को नियुक्त करने से। दरअसल, सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा अपने चहेते अफसरों को एजेंसी में नियुक्त करना चाहते थे। यही चाहत विशेष निदेशक राकेश अस्थाना की भी थी। यही पसंदीदा को रखने की चाहत एक ऐसी लड़ाई में बदल गई, जिसकी जद में एजेंसी की साख भी आ गई। मामला बढ़ता गया और केंद्रीय प्रवर्तन निदेशालय तक जा पहुंचा। इस सीबीआई बनाम सीबीआई मामले में जिस तरह से अधिकारी आपस में एक-दूसरे से लड़ रहे थे, वह किसी गैंगवार की तरह था। झूठ को सच और सच को झूठ बनाने का पूरा खेल चल रहा था। मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो एक और खुलासा यह हुआ कि एजेंसी के भीतर उगाही का नेटवर्क चल रहा था। इस प्रकरण में कुछ सवाल भी मुंह फाड़े खड़े हैं। मसलन, आलोक वर्मा ने पिछले दिनों राफेल डील की जांच को लेकर काफी हड़बड़ी दिखाई। प्रशांत भूषण और अरुण शौरी ने उनसे मिलना चाहा, तो उन्होंने फौरन उन्हें वक्त दे दिया। सीबीआई के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ है कि सियासी शिकायतों को जांच एजेंसी के निदेशक ने निजी तौर पर सुना हो। सीबीआई के पतन की शुरुआत अब से तीन दशक पहले (30 साल) हुई थी। उस समय राजीव गांधी प्रधानमंत्री के पद पर आसीन थे। उस समय राजनीतिक विवाद को निपटाने के लिए जांच एजेंसी का इस्तेमाल किया गया था। बैडमिंटन स्टार सैयद मोदी की पत्नी अमिता मोदी की डायरी में दर्ज सनसनीखेज जानकारियां इसकी पुष्टि करती हैं। उस समय सीबीआई के अधिकारियों ने जान-बूझकर इसे मीडिया में लीक किया था। वह ऐसा समय था, जब सीबीआई किसी मामले की पड़ताल करने के बजाय चरित्रहनन का काम ज्यादा कर रही थी। नतीजा ये हुआ कि सैयद मोदी की हत्या का राज आज तक नहीं खुल सका। ऐसा ही हश्र बोफोर्स तोप खरीद में दलाली के मामले का भी हुआ। कई दशक तक जांच करने के बाद भी सीबीआई इसके किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकी। आरुषि तलवार हत्याकांड भी ऐसा एक अनसुलझा मामला बन चुका है। अब यह देखना होगा कि इस संक्रमण काल से निकलकर सीबीआई की किस्मत का सितारा चमकेगा या फिर अस्त हो जाएगा।